आज मैं बहुत खुश था| मैंने वो सब पा लिया था, जिसके लिए मैंने गृहस्थ जीवन का परित्याग किया था| शायद मैं आज खुद को दुनिया का सबसे खुशनसीब व्यक्ति मान रहा था,और माँनू भी क्यों ना ???………………
एक सन्यासी जब जीवन के सत्य की खोज में निकलता है तो, उसे उसकी अनुभूति परोपकार, मानावधर्मिता, दया, परसेवा आदि से ही तो मिलती है| मेरे परमपूज्य गुरूजी ने यही तो सिखाया है मुझे| एक सन्यासी का धर्म है लोक कल्याण का कार्य करना, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, भावनाएं आदि जीवन को गृहस्थी से बाँधने वाले शब्दों से दूर रहना| मृत्यु जो जीवन का एकमात्र सत्य है, स्वजीवन का लक्ष्य मान कर सम्पूर्ण जीवन लोकहित में लगा देना|
मैने भी तो वही किया| मेरे हृदय में उमड़ती ये हर्ष की भावना और मुख पर छाई मंद मुस्कान मेरी लोकसेवा में निरंतरता का ही तो परिचायक है| और ये पाई मैंने कई माह तक उन बाढ़ पीड़ितों की सेवा करके जिन्हें मैं जानता भी नहीं| उनके हृदय पटलों से उस भयावय दंश को निकलने में मुझे कई दिन लग गये| उन्हें वापस जीवन के प्रति उत्सुक बनाने वा नवीन राह दिखाते हुए पुनः जीवन प्रारम्भ करने की दीक्षा ही मेरा मूल कर्तव्य रहा उन दिनों| मैं पूर्ण रूपेण उनके प्रति समर्पित हो गया| मेरे इस समर्पण का प्रभाव शायद अन्य लोगों पर भी पड़ा| मुझे गेरुए वस्त्र में कार्य करते देख अन्य साधू संत भी आने लगे| शनः शनः एक पूरी साधू टोली का निर्माण हो गया| हम साधुओं को कार्य करते देख अनेक लोगों की अंतरात्मा को जाग्रति का अनुभव होने लगा और धीरे धीरे कई जन सामान्य लोग हमारे साथ आ गये| जो कार्य शायद मैं कई महीनों या सालों में कर पाता, वो महज छह माह में ही संपन्न हो गया|
मैं हर्ष से फूला नहीं समा रहा था| यही तो कर्त्तव्य है एक साधू का | लोक चेतना को जाग्रत करना, समाज की सेवा करना और किंचित मात्र भी श्रेय का भगीदार ना बनना| मैंने भी यही किया था| मैं स्वयं को बड़ा गौरवान्वित महसूस कर रहा था| मुझे लगा शायद आज मैंने जीवन के सत्य को पहचाना, उन बाढ़ पीड़ितों के दंश में, उन सैकड़ों व्यक्तियों की मृत्यु में तथा उस जनसेवा से प्राप्त हर्ष में|
मैं वहाँ का कार्य संपन्न करने के पशचात शायद कुछ जल्दी में था| मैं शीघ्रातिशीघ्र अपने गुरूजी के पास पहुचकर अपनी इस उपलब्धि के बारे में बताना चाहता था| मैं उनसे कहना चाहता था कि मैंने सत्य की अनुभूति को पहचान लिया है| उस वक़्त शायद मैं अपने क़दमों को पंख देना चाहता था, ताकि उड़कर जल्द से जल्द पहुच जाऊं| परन्तु ढ़लती उम्र मेरे कौतूहल पर भरी पड रही थी| मेरे हृदय में हर्ष और उल्लास की उमंग सागर की लहरों की भांति उमड़ती गिरती और मैं उसमें खोया हुआ सब भूलकर बस चला ही जा रहा था…………
बस मैं पहुचने ही वाला था मंजिल तक, दूरी बस उस पहाड़ी पर चढने भर की ही राह गयी थी| पहाड़ी पर गुरूजी का आश्रम था,पर मेरा शरीर विश्राम की गुहार लगा रहा था मुझसे| परन्तु मेरे कौतूहल ने अनसुनी कर दी| कई वर्षों पहले जब आश्रम से निकला था दीक्षा लेकर तब आखरी बार देखा था गुरूजी को | पहाड़ी पर एक छोटी सि कुटिया और बांसों से काफी बड़ी जगह का घेराव, जहाँ हम सभी बैठ कर शिक्षा लिया करते थे| उसके कुछ ऊपर जाकर कच्ची मिट्टी से बने घर जो हमारे व आगंतुको के रहने के लिए हमने मिलकर बनाये थे| न जाने वो जगह अब कैसी होगी?? गुरूजी वृद्ध होते हुए भी शरीर से सक्षम थे तब| अब ना जाने कैसे होंगे ?? कई सारे नए शिष्य आ गये होंगे उन कुटीरों में | कई एसे सवालों का मंथन करते हुए उनका जबाब देते हुए मैं चला जा रहा था !!!! शायद यह जानता था कि उनका निराकरण भी उसी जगह है |
अब मैं पहुँच चूका यह आश्रम में | पहले से काफी बदल चुका था | बांसों से जो घेराव हमने किया था वो अब फूलों और सब्जियों के बागों में बदल चुका था | पेड़ो व पौधों से वह बेजान आश्रम आज सजीव लग रहा था | मैं अन्दर गया | गुरूजी ध्यान में लीन थे | मैं चुप चाप बिना आवाज किये उनके पास जाकर बैठ गया | परन्तु हर बार की तरह ना जाने कैसे उनको आभास हो ही गया | वे उसी मुद्रा में मुस्कराते हुए बोले रामदास कैसे हो ? मैंने ठीक कहते हुए सर हिलाया और उनकी ओर ध्यान से देखा | गेरुए वस्त्र, लम्बी सफ़ेद दाढ़ी, उलझी जटाएं, शरीर उम्र के कारण कुछ कमजोर परन्तु ललाट का तेज पहले से कहीं अधिक |
मैंने उनके पैर छुए | धीरे से नेत्रों को खोलते हुए उन्होंने एक नजर मुझ पर डाली | आह!!! उस एक नजर में कितना अपनापन, न जाने कितना वात्सल्य था | मैंने एक शिशु की भांति बड़े कौतूहल से कहा, गुरूजी मैंने जीवन के सत्य को जाना, आप सही थे | जीवन का सत्य अत्यंत कठोर व दुखद है | आपके निर्देशानुसार मैंने उसे दूर करने का प्रयास किया और अपार हर्ष की अनुभूति प्राप्त की (मैं बोले ही जा रहा था………………………………)
गुरूजी चुप चाप बड़े शांत भाव से सिर्फ मुझे सुने जा रहे थे, एक हल्की मुस्कान चेहरे पर बिखेरे हुए | मेरी बात समाप्त होने के बाद मुझसे बोले , रामदास ! जाओ अपनी कुटिया देख आओ | मैं गुरूजी को प्रणाम कर सहर्ष चल दिया, ऊपर कुटिया देखने | नजदीक पहुचने पर मुझे आभास हुआ कि कुटिया में कोई है | मैं और पास गया, इतना पास कि खिड़की से झाँकने वाला व्यक्ति साफ़ दिखाई दे | मैंने एक वृद्ध महिला को देखा, जर्जर शरीर, सफ़ेद बाल झुकी कमर जो खिड़की की ओर पीठ करके खड़ी थी | मैं उसे देखने के लिए कुटिया की ओर चल पड़ा |
(कुटिया के प्रवेश द्वार से कुछ पहले खड़े हुए एक महंत से……………)
महंत ! ये देवी कौन है कुटिया में ?
(महंत उत्तर देते हुए…)
“यह बड़ी दुखियारी है | इसके पति की मृत्यु हो गयी | लड़का भी जवानी में कहीं चला गया | जैसे तैसे दिन काट रही थी अब पुत्रवधू ने भी घर से निकाल दिया | बेचारी उम्र के इस पड़ाव में कहाँ जाती | गुरूजी ने इसे आश्रय दिया है | बेचारी अम्मा ! कभी कभी फूट फूट कर रोटी है , अपनी किस्मत को कोसती है और अपने बेटे को याद करके कहती है , कि आज मेरा बेटा होता, तो मेरी ये दशा नहीं होती | वह मुझसे बहुत प्यार करता था, मेरी हर बात मानता था | न जाने कहाँ चला गया | पर एक दिन जरुर आएगा, अपनी माँ को लेने | बस बार बार यही कहती रहती है|”
जाओ आप भी मिल आओ अम्मा से| मेरा हृदय द्रवित हो गया यह सुनकर | मैं सोचने लगा कितना निर्मम होगा वह बेटा जो अपनी माँ को छोड़कर चला गया | माँतृ सेवा से भी बढ़कर कोई सेवा है क्या इस दुनिया में ? कर्तव्यविमूढ कहीं का |
(और सोचते सोचते प्रवेश कर गया कुटिया में)
वह जर्जर शरीर, झुकी कमर, कमजोर कांठी, सफ़ेद बाल, सिकुड़ी हुई त्वचा लिए, मैली साड़ी पहने कुटिया की सफाई करने में व्यस्त थी, निराशा में मग्न शायद | उसे मेरे आने का भी आभास नहीं हुआ | वह कुछ बुदबुदा अवश्य रही थी | कुछ देर तक उसे इसी तरह देखता रहा, फिर धीरे से बोला “अम्मा” , परन्तु मेरे आवाज की यह तीव्रता उसके निराशमय चित्त को जाग्रत नहीं कर सकी | इस बार मैंने कुछ अधिक तीव्र स्वर में बोला, “ ओ ! अम्मा “| उसने पलट कर मेरी ओर देखा | मैं अँधेरे में खड़ा था शायद इसलिए वह अपनी धुंधली आँखों से मुझे देख नहीं पा रही थी |वह कुछ पास आई और मैं भी |
जैसे ही मेरी नजर उन पर पड़ी, मेरी आँखों से अश्रु धरा स्वतः ही बह निकली| मेरी आवाज गले में रुंध गयी, धडकनें तीव्र हो गयी, जो सुबकियों से धीरे धीरे बाहर आने लगीं | मेरे बहुत जोर लगाने के बाद एक आवाज बहार आई, “माँ” | यह देवी कोई और नहीं मेरी ही माँ थी | माँ ने भी मुझे पहचान लिया और बिना कुछ कहे मुझे गले से लगा लिया | हम बस रोये जा रहे थे बना कुछ बोले | मुझे नहीं पता ये अश्रु उनसे मिलने के थे या उनकी इस दशा के या मेरे पश्चाताप के | परन्तु जो गर्व की भावना मैं लेकर आया था वह मेरे हृदय में निर्मूल हो चुकी थी | मैं माँ को सँभालने की कोशिश कर रहा था और वो मुझे |
अब मेरा रोम रोम गुरूजी का कृतघ्या हो चुका था | मेरा हृदय उन्हें बार बार धन्यवाद दे रहा था | मेरे गुरुजी ने मुझको बिना कुछ बोले जीवन के सत्य का वास्तविक अनुभव करा दिया था जो मेरी माँ की आँखों से क्षलक रहा था और मेरी भी ………………!!!!!
—————-( के के अवस्थी “बेढंगा”)
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