कमरे से बाहर निकल के देखा तो बादलों की ओढ़नी ओढे हुए, मांग में सूरज की लाली सजाये हुए, सामने थी एक नम सुबह, हमारे स्वागत में बाहें पसारे हुए। सावन का महीना और पहला सोमवार था। ज़्यादा देर तक उस नई नवेली दुल्हन सी सजी सुबह का भोग हम कर नहीं पाए। दफ्तर जाने की जल्दी थी और जाने से पहले त्रिलोकीनाथ महादेव को प्रसन्न भी करना था। सो वापस आये कमरे में और लग गए नित्य-कर्म में।
मंदिर पहुंचे तो भीड़ कुछ ज़्यादा ही थी, पहला सोमवार जो ठहरा। आज महादेव का दिन काफी व्यस्त रहने वाला था। गाड़ी पार्किंग में लगा, हम भी पंक्तिबद्ध हो गए। एक में जल कलश और दूसरे हाथ में दूध की थैली लिए। आगे क़रीब बीस-पच्चीस लोग थे और जब तक उन बीस-पच्चीस की गिनती पूरी हुई, पीछे दस और आ लगे। हमने हाथ पे बंधी घड़ी पे नज़र फेरी और व्याकुलता से पैर हिलाते हुए, अपनी बारी का इंतज़ार करने लगे। जयकारों और मंदिर के घंटों का शोर कुछ ज़्यादा ही था। उस अस्त व्यस्त माहौल में भोले नाथ को छोड़ के सब को जल्दी थी, हमे भी। इस सब कोलाहल के बीच, दफ्तर समय से पहुंचने की चिंता दिमाग में उसी तरह ही बसी थी, जैसे नीलकंठ में विष। कई बार तो यूँ लगता था अपने इष्ट बॉस को प्रसन्न करना ज़्यादा मुश्किल है। बाबा तो भोले ठहरे, एक लोटे जल और दस रुपए की दूध की थैली से ही गदगद हो उठते हैं – “मांगो वत्स क्या वर चाहिए।” कहने लगते हैं।
मगर असुर सम्राट बॉस का क्या करें। वो तो किसी भी आडम्बर से प्रसन्न नहीं होता। हज़ार – दो हज़ार की बोतल भी मन में शीतलता का भाव नहीं जगा पाती। अगली सुबह फिर भी दफ्तर समय से ही पहुँचना होता है। वो अलग बात है कि बॉस खुद जितनी भी देरी से आवे, उतनी जल्दी ही चला जावे। सिर दर्द का बहाना करके और हम चकराते सर के साथ वही विराजमान रहे। अब कौन समझाए की जिस बोतल की मद में उनका सिर चकरा रहा है उसी मद की बारिश में हम भी नहाये थे। अरे बस यूँ समझिये, वो ठहरे देवकुल के और हम ठहरे निरीह प्राणी। जिससे ना चाहते हुए भी भीष्म सी प्रतिज्ञा करवाई गई है। हर अनर्गल बात में भी, अपनी सत्यनिष्ठा सिंहासन के प्रति दर्शाने को। खैर, एक ज़ोर का धक्का लगा हमे अपने इन ख्वाबों की कश्ती में से निकल कर जल मग्न होने में।
हुआ यूँ, एक भाई साहब पंक्ति के बीच में ही आना चाहते थे और इस बहसी हाथापाई में पीछे वाले भाई साब ने हम पे ही अपना जल अर्पण कर दिया था। उनकी माफ़ी मांगने की याचना से खुद को जल मग्न रूद्र देव समझते हुए, हमने बात जाने दी। और दूसरे लड़ाकू भाई साहब से पूछा के वो बीच में क्यों आना चाहते हैं, तो आक्रोशवश वो बोले – “हम पहले ही बोल के गए थे की दूध की थैली लेने जा रहे हैं। वापस आये, तो ये मान ही नहीं रहे हैं। इस जगह पे तो हम ही खड़े होंगे, वर्ना कोई भी नहीं। “
बोलते-बोलते उनके उग्र स्वर से और जगह पे अपने अधिपत्य दिखाने की कला से, वापस युद्ध की स्तिथि उत्पन्न हो गई। ऐसी भयावह स्तिथि को देखते हुए हमारे आगे खड़े एक वृद्ध सज्जन ने बात सँभाली। दोनों योद्धाओं के मल्लयुद्ध को बाधित कर, दोनों को पंक्ति में आत्मसात कराया। उनकी वाक्यपटुता और मित्रभाषी व्यवहार की हम मन ही मन प्रशंसा करते रहे।
थोड़ी देर में एक भिखारन आई और बारी-बारी से सबके सामने हाथ फ़ैलाने लगी। उसको पास आता देख हमने ज़ोर से, लोगों को आगे बढ़ने की आवाज़ लगाई। पंक्ति तो धीमे-धीमे ही घिसटती रही। सो हमारे आदेश का असर वैसे ही हुआ, जैसे तालाब में किसी पत्ते के गिरने से। उतनी ही लहरें उठी, जितनी आगे वाले सज्जन और पीछे वाले लड़ाकू दुर्जन सुन सके। हमारी पुकार सुनके उन्होंने भी ज़ोर का नारा लगाया – “हर हर महादेव। जय महाकाल। अरे, आगे बड़ो भाई। “
उनकी नारे की तीवत्रा सुन, एक पल को लगा कही महादेव ही आगे बढ़ के कैलाश की ओर पलायन ना कर दे। ये कहते हुए कि – “ना भाई ना, ऐसे थोड़े होता है। बिलकुल भी नहीं। तुम्हारे कल्याण करने को बैठा हूँ, अपने कान के परदे फुड़वाने को नहीं।” हमारे आगे वाले वृद्ध सज्जन ने कहा “थोड़ा धैर्य रखो। देवस्थान पे इतनी व्याकुलता अच्छी नहीं। “
उनकी धीर गंभीर वाणी में हमे अलग ही अनुभूति हुई। कुछ देर उनके मुखमण्डल को निहारते हुए हम बोले – “जी हम बस इसलिए चिल्लाये ताकि उस भिखारिन के, हम तक आने से पहले अंदर हो ले। “
“ऐसा क्यूँ ?” हमारी तरफ बड़े आकस्मिक भाव से देखते हुए उन्होंने पूछा।
“दरअसल, थोड़ा ठीक नहीं लगता। पीछे पड़ जाते हैं ये लोग।” हमने कहा मगर उनकी आँखों में सहमति न देखते हुए दूबारा कहा –
“Just to avoid them.” – हमने अपने अंग्रेजी ज्ञान की हलकी सी झलक दिखलाई।
वृद्ध सज्जन मुस्कुराये और उन्होंने इशारे से भिखारन को अपनी ओर बुलाया। बात हमे नागवार गुज़री। इष्ट देव से वापस रूद्र देव बनने में हमे छण भर लगा और दाँत पीसते हुए हमने पूछा –
“आपने उसे इधर क्यों बुला लिया।”
इससे पहले वो कुछ कहते भिखारन आ गई। उसकी दयनीय स्तिथि और कुलीन वेशभूषा देख कर हमने तो नज़रे फिरा ली। मगर वृद्ध सज्जन थे वार्तालाप के मूड में।
“क्या चाहिए तुमको ?” उन्होंने प्रश्न किया।
“बच्चे के लिए दूध साब। कल से कुछ खाया भी नहीं है। बहुत भूक लगी है….. कुछ पैसे मिल जाते तो…… मुझे अपने लिए नहीं बच्चे के लिए साब । ” – एक सांस में उसने सब कह डाला और हमे लगा ये रटा रटाया वाक्य है। सब ज़्यादा पैसे ऐंठने के लिए।
वृद्ध सज्जन ने उसकी बात सुनके, अपनी जेब में हाथ डाला। हमने आँखों के इशारे से उन्हें मना भी किया। मगर वो हमे देख के मुस्कुराये और कुछ रूपये निकाल के उन्होंने भिखारन को दे दिए। भिखारिन जाने लगी तो उन्होंने कुछ सोच के आवाज़ लगाई – “अरे सुन्ना….. ज़रा रुको….”
फिर अपने हाथ में लटकती कच्चे दूध की बाल्टी भी उन्होंने उसे ये कहते हुए थमा दी की- “यह भी लेती जाओ बेटी। मगर कच्चा दूध है, उबाल के पिलाना बच्चे को……. और ये बाल्टी में आगे दूध रखने में आसानी होगी। “
भिखारन ने झट से बाल्टी लपक ली और प्रसन्न भाव से उन्हें दुआएं देकर चलती बनी। हमे तो जैसे उसके जाने का ही इंतज़ार था। उसके जाते ही हम तपाक से बोले – “देखा लगा गई ना चूना, अपनी झूठी बातों से। आप भी उसकी शक्ल पे चले गए, थोड़ी तो अक्ल लगाई होती अंकल। बच्चा होता तो गोद में लेके घूम रही होती।”
हमारा कथन सुनके, दो और लोगो ने भी, अंकल की हसीं उड़ाते हुए. हमारी बात का समर्थन किया। शांत भाव से वृद्ध बोले – “कोई बात नहीं, उसकी करनी उसके साथ और मेरी करनी मेरे साथ। इसका चिंतन मेरा कार्य नहीं है। अपितु भगवन का है।”
लेकिन हमे कहा इस उपदेश प्राप्ति से शांती मिलनी थी – “पुण्य कमाने का शौक़ लगा है सबको।”
कहते हुए हम पीछे पलटे और आगे बढ़ने को उत्सुक उन्ही दोनों दुर्जनों को डाँट दिया – “कहाँ आगे बढ़ जाऊं। कूदी लगा दू क्या, सबके ऊपर से। खड़े रहिये चुप्पे चाप।”
व्यर्थ में ही पीछे वालों को झाड़ लगा दी थी। उग्र और व्याकुल बहुत थे हम उस छण। व्याकुल देरी के कारण और उग्र उन सज्जन के शांत और उदारवादी स्वभाव के कारण।
या शायद हमारी बात की नाफरमानी की थी इसीलिए – वो भी दो-दो बार।
“आप क्या समझते है, मेरे इस कृत्य से उसकी भूख शांत कर मुझे पुण्य मिलेगा?” – वृद्ध सज्जन ने उत्सुकता से प्रश्न किया।
“आपको मिलेगा ठेंगा…… पैसे रख के दूध बहा देगी नाली में और बाल्टी बेच देगी।” -झेंपते हुए हमने कहा।
“और अगर उसकी बात सच हुई तो…. ” – उन्होंने दोबारा प्रश्न किया।
“तो क्या…. मेहनत मजदूरी करे और पैसे कमाए। हमने तो ठेका नहीं ले रखा किसी का।” – मुँह बिचकाते हुए हमने कहा।
“सत्य वचन…… ” – कह के उन्होंने मौन धारण किया।
मगर कुछ सोच विचार कर उनके बोल फिर निकले – “ठेका तो सबका महादेव ने ले रखा है…… “
अपनी बारी के इंतज़ार में हम अब बिलकुल भी उपदेश सुनने के मूड में नहीं थे। इस बार हमने बात को अनसुना करते हुए कही और देखने की चेष्टा की। मगर वो फिर बोले – “आपको क्या लगता है? अगर मै उसकी सहायता नहीं करता तो क्या वो और उसकी संतान भूखी ही रहती।” पता नहीं वो पूछ रहे थे या बता रहे थे। इस बार हम उन्हें अनसुना नहीं कर पाए। उनके व्यवहार और वाणी में स्तिथ गंभीरता ने हमारा ध्यान उनकी ओर आकर्षित कर दिया – “देने वाले तो सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञाता, सार्वभौम, सर्वव्यापक देवो के देव महादेव हैं। भूक से व्याकुल मुख को अन्न की प्राप्ति तो वे करा ही देंगे। मैं नहीं तो कोई और देता। इच्छा महादेव की है, अगर उनकी इच्छापूर्ति का साधन मै बन जाऊँ तो अहोभाग्य….. ” – कहते हुए उन्होंने एक गहरी सांस ली और मंत्र का जाप करते हुए श्वास छोड़ी –
“ॐ नमः शिवाय। शिव शिव शिव….. “
“क्या अंकलजी आप भी किन बातों में पड़े हैं अभी तक ” – कहते हुए हम खिसियाये। अब और देरी हमे सहन नहीं हो रही थी।
“और…… और आप अब क्या करेंगे। दोबारा दूध लेने गए तो फिर इस लाइन में पीछे लगना पड़ेगा।” – उनकी आँखों में नज़र गड़ाए हमने पूछा।
वो सौम्य भाव से मुस्कुराये – “नहीं चढ़ाएंगे दुग्ध, इस बार जलाभिषेक ही सही…… और क्या पता यही प्रभु इच्छा हो। दुग्ध व्यर्थ बहाने से अच्छा तो ये है कि किसी की भूख शांत करे। “
“अच्छा शिवलिंग पे दूध चढ़ाना व्यर्थ है…..तो हम भी इतना कष्ट काहे सह रहे है।” – कुछ सोच के हम फिर बोले –
“….. और प्रभु की इच्छा और नज़र सिर्फ आपके दूध पे थी और हमारा दूध बहाने को …… ” – इससे पहले हम बात पूरी कर पाते, वो बीच में काटते हुए बोले
“प्रभु ने पहला अवसर तो पूर्णतः आपको ही प्रदान किया था। मगर आप उसे भगाने की चेष्टा कर रहे थे। ” – दिल में कुछ धक्क सा हुआ, अवाक से हम उन्हें देखते रहे। कुछ समझ ना आया की आगे क्या कहे। कुछ अलग ही अनुभूति हुई, कुछ अलौकिक सी शायद, छण भर को। मगर अगले ही पल ज़ोर का धक्का लगा और हम भीड़ के साथ शिवालय में प्रवेश कर गए। कलश से जल गिर गया था और हाथ में दूध की थैली ही मात्र शेष थी।
दुग्धाभिषेक उपरान्त, किसी तरह धक्का मुक्की करते हुए हम बाहर निकले। जल कलश अंदर ही रह गया था। मगर चेहरे पे संतोष और मन में गर्वित भाव के साथ ये सोचा – “चलो एक सोमवार तो निबटाया। महादेव हमारे दुग्ध प्रच्छालन से प्रसन्न हो ही गए होंगे। इतना कष्ट जो सहा। भीड़ और धक्का मुक्की के बाद अंदर पहुंचे थे, इतना अधिकार तो बनता ही था……. मगर जल कलश ??”
कलश का विचार आते ही, मंदिर के द्वार पे संचित भीड़ पे नज़र गई और चिंता की रेखाएं हमारे माथे पे उपजी। और फिर ये सोच के छिर्ण पढ़ गई के- “कोई बात नहीं …. समझ लो महादेव के नाम पे वो दान दिया। अब भक्ति में इतना दान तो बनता ही है। शाम को नया लोटा ले आएंगे दफ्तर से लौटते वक़्त।”
सोचते हुए हमने हाथ ऊपर उठाये और ज़ोर से मंत्र जाप किया – “ॐ नमः शिवाय….. शिव शिव शिव जय महाकाल”
फिर पलट के इधर-उधर देखा की कही वो वृद्ध सज्जन बाहर आये की नहीं। कहँ ऐसा तो नहीं अंदर ही भीड़ और धक्का मुक्की में निकल लिए। ये सोच के, एक कुटिल मुस्कान हमारे अधरों पे फ़ैल गई। फिर नज़र घड़ी पे गई और बॉस की आसुरी शक्तियाँ याद आई और हम भागे उलटे पाँव गाड़ी की तरफ।
पार्किंग में गाड़ी का दरवाज़ा खोला ही था, की एक किलकारी हमारे कानो में गूंज गई। साथ ही उसे खिलाने वाली एक जानी पहचानी सी ममतामयी आवाज़। हाथ थम से गए और ध्यान उसी तरफ टिक गया। दरवाज़ा छोड़, हम गाड़ियों की पंक्ति के पीछे झाँकने को दबे पाँव आगे बड़े। दो पंक्तियों के बाद एक छोटा सा चबूतरा था।
जिसपे वही भिखारन अपने दूधमुहे बच्चे के साथ खेल रही थी।mउसकी पीठ और बच्चे का मुँह हमारी तरफ। वो बच्चे को बाहों के झूले में उचका रही थी। बच्चा भी शांत भाव के साथ, अपनी माँ के वात्सल्य को स्वीकारते हुए मुस्कुरा रहा था। भाव भंगिमा ठीक वैसे ही थी जैसे भूख से व्याकुल बच्चे को माँ का दूध पिलाने के बाद होती है…….. और बगल में वही वृद्ध सज्जन की खाली बाल्टी पड़ी थी। हमे लगा, भले ही बाल्टी खाली थी मगर उस माँ की गोद में और वृद्ध सज्जन की झोली में महादेव की कृपा अवश्य भरी थी।
“ॐ नमः शिवाय।”
– शिवम् “बानगी”
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